Sunday, March 10, 2013

सहज बने रहने का स्वांग


इस बार 
वो डरते डरते 
प्रविष्ट हुआ 
कविता के गलियारे में 
जैसे
स्वयं से बिछुड़ने की पीड़ा 
कोइ पाप हो 
और उसके साथ में 
इस अवगुंठन 
का श्राप हो 

इस बार 
वह 
सब से सब कुछ छुपा कर 
सहज बने रहने का स्वांग 
सजा कर मुख पर 
निकल आना चाहता था 
सधे हुए कदमो से 
सत्य की महिमा से मंडित 
इस 
गोपनीय गलियारे से 
अपने चेहरे पर 
समाधान युक्त होने का क्रीम लगाकर 
इस बार 
वो नहीं चाहता था 
सारी जेबें 
खंगाल कर 
देखना और दिखाना 
की 
अब भी 
कंकर ही जमा हैं 
कामनाओं की आहटों में 
वही उदास गीत गूँज उठता है 
अब भी 
उसकी अंगुलियाँ 
अपनी जेब में 
कोइ सुनहरी सुबह 
टटोल टटोल कर 
थकी नहीं हैं 
पर 
कुछ है 
जो थक गया है 
कुछ है 
जो ये सब खेल छोड़ कर भाग जाना चाहता है 

अर्थ की और ले जाते कदम 
अब थक कर 
सुस्ताना चाहते हैं 

कह कर 
अपना सत्य 
उसे मालूम था 
कविता की गोद में सर रख कर 
रो पड़ेगा वह 
और 
दिखलाते हुए अनाम अकेलापन 
हँसना पड़ेगा उसे भी 
अपने आंसूं के साथ 
क्योंकि वह 
जो दिखाया जाना है 
दीखता नहीं 
महसूस भर किया जा सकता है 
और 
कैसे कहे कविता को की 
अपनी पीड़ा को महसूस करने वाला इंसान 
और कोइ बनाया ही नहीं बनाने वाले ने 
 
सब अपना अपना भुगतते हैं 
अपनी अपनी ढफली लेकर अपना अपना राग गाते हैं 
 
अब उसे 
यह भी कहना पडा कविता को 
की नहीं जान पाया वह 
किसी के दर्द को अपनाना 
सीख ही नहीं पाया 
अपने दर्द से बाहर आना 
और 
ना जाने यह कैसा दर्द है 
जो संभव नहीं 
किसी को दिखाना 
 
 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१ मार्च २ ३  

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन में जो फँसा है, जब तक वह बाहर नहीं आयेगा, सहजता कहाँ से आयेगी?

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