अमृत स्पर्श कर
सीढ़ियों से
छम छम
उतर रही
गुनगुना रही
स्वर्णिम आशीष
आनंद की अनाम किरणों ने
सौम्यता से
खोल दिया है
अंतस का द्वार
उसके अपनेपन ने
छुड़ा दीं मुझसे
वो सारे गठरियाँ
जिनमें
बरसों या शायद जन्मों के
ग्रंथियां सहेजे था
बहारी सुरक्षा का खेल छुड़ा कर
जल रहा है
अकम्पित
एक दीप श्रद्धा का
लीन इस
आनंदित विस्तार के मौन में
मुंदी हुई ऑंखें
पर बोध है
मुस्कुरा रहा हूँ मैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ मई २०११
4 comments:
जल रहा है
अकम्पित
एक दीप श्रद्धा का
लीन इस
आनंदित विस्तार के मौन में
मुंदी हुई ऑंखें
पर बोध है
मुस्कुरा रहा हूँ मैं
दिव्य आलोक गुंजा रहा है मुझमे……………बहुत सुन्दर और अन्तस मे उतरने वाली प्रस्तुति सीधा समागम कराती है।
पढ़कर शान्ति उतर आयी।
'लीन इस आनंदित विस्तार के मौन में
मुंदी हुई ऑंखें पर बोध है मुस्कुरा रहा हूँ मैं'
आप यूँ ही आनंद में लीन रहें और चेतना के सहज बोध में यूँ ही मुस्कुराते रहें.हमें तो आपकी अनुभूति से ही असीम आनंद आ रहा है.
धन्यवाद वंदनाजी, प्रवीणजी और राकेश कुमार जी, आपके शब्दों से हमारे 'एक्य' का भाव रसमय दृढ़ता को प्राप्त करता है, जय हो
Post a Comment