Monday, May 9, 2011

आनंदित विस्तार के मौन में

 
अमृत स्पर्श कर
सीढ़ियों से 
छम छम 
उतर रही
गुनगुना रही
स्वर्णिम आशीष

आनंद की अनाम किरणों ने
सौम्यता से
खोल दिया है 
अंतस का द्वार

उसके अपनेपन ने
छुड़ा दीं मुझसे
वो सारे गठरियाँ 
जिनमें
बरसों या शायद जन्मों के 
ग्रंथियां सहेजे था

बहारी सुरक्षा का खेल छुड़ा कर
जल रहा है
अकम्पित
एक दीप श्रद्धा का

लीन इस
आनंदित विस्तार के मौन में

मुंदी हुई ऑंखें
पर बोध है 
मुस्कुरा रहा हूँ मैं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ मई २०११      

4 comments:

vandana gupta said...

जल रहा है
अकम्पित
एक दीप श्रद्धा का

लीन इस
आनंदित विस्तार के मौन में

मुंदी हुई ऑंखें
पर बोध है
मुस्कुरा रहा हूँ मैं

दिव्य आलोक गुंजा रहा है मुझमे……………बहुत सुन्दर और अन्तस मे उतरने वाली प्रस्तुति सीधा समागम कराती है।

प्रवीण पाण्डेय said...

पढ़कर शान्ति उतर आयी।

Rakesh Kumar said...

'लीन इस आनंदित विस्तार के मौन में
मुंदी हुई ऑंखें पर बोध है मुस्कुरा रहा हूँ मैं'

आप यूँ ही आनंद में लीन रहें और चेतना के सहज बोध में यूँ ही मुस्कुराते रहें.हमें तो आपकी अनुभूति से ही असीम आनंद आ रहा है.

Ashok Vyas said...

धन्यवाद वंदनाजी, प्रवीणजी और राकेश कुमार जी, आपके शब्दों से हमारे 'एक्य' का भाव रसमय दृढ़ता को प्राप्त करता है, जय हो

सुंदर मौन की गाथा

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