तो चलते चलते
अदृश्य हो जाता है
रथ का सारथि जब
एक अज्ञात भाव घेर लेता है
कहीं छूट तो न जायेगी दिशा
कहीं सरपट भागते पहिये पथच्युत तो न हो जायेंगे
और
किसी अनजानी चोट के काल्पनिक स्पर्श से सहम कर
व्याकुलता की पगडंडियों पर
दौड़-धूप कर
प्रार्थना के निमित्त
बंद कर आँखें
किसी आश्वस्त पवन की थपकी से
आंख खोल कर देखता हूँ
वहीँ है सारथि
वैसे ही
अश्वों की रास थामे
पलट कर
मेरी और मुस्कुराते हुए
मेरी आँखों में टंगे प्रश्न
'कहाँ चले गए थे' का
आँखों से ही जवाब देता है
कहता है
"मैं तो यहीं था
तुम ही चले गए थे
सैर करने
अपने भय प्रदेश की भूल भुल्लैया में
अशोक व्यास
५ जुलाई २ ३
1 comment:
जीवन को न जाने किस राह पर लिये जा रहा है विधाता, नियति के रथ पर।
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