Friday, June 7, 2013

प्यार की यह लहर


यह जो है 
एक शून्य सा 
 
मंथर गति से
 चलती हुई 
जीवन की लकीर से झनझनाता

इस शून्य में ढूढता हूँ
 
 अपना वह चेहरा
 
 जो शेष रहता है 
पार हर परिवर्तन के 
 
और ढूंढते ढूंढते अनायास ही 
जब छूट जाती है 
ढूँढने की जरूरत 
 
मिल जाता है 
यह एक कुछ 
मिलने और न मिलने से परे का 

इसके साथ 
उतर  जाता हूँ 
ऐसी नींद में
 जिसके भीतर जाग्रति है 
 
और इस जाग्रति में 
ऐसा यह क्या कि 
भेद नहीं रहता 
मुझमें और सूरज में 
 
ऐसा यह क्या की 
मैं अपने आप से 
प्रकट होते 
अनाम उजियारे में 
भीगता 
पुष्ट होता हूँ 
 
भरा हुआ 
अपने अकाट्य होने के बोध से 
छलछलाता हूँ 
प्यार से 
 
और लगता है 
प्यार की यह लहर 
जगत के इस छोर से 
उस छोर तक जायेगी 
 
सबके पास 
अक्षय प्रसन्नता का उपहार पहुंचाएगी 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
७ जून २ ० १ ३

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम ही है, जो शून्य को पूरा भर पाता है।

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