कितना विचित्र है
इस तरह होना
अपने आप में पूर्ण
और
अपूर्णता से व्यवहार करना
वह स्थल
जहाँ से जाग्रत है
बोध पूर्णता का
अदृश्य ही नहीं अमान्य भी है
इस समाज में
जिसकी मान्यताओं को ओढ़ कर
अपने को कहीं न कहीं छुपाये हुए
खंडित होने का स्वांग रचाते
एक दिन
लौट कर
छोड़ देते है
उस विचित्रता को
जिसमें प्रश्न चिन्ह थे अपनी पूर्णता पर
और
सहज ही
अपनी पूर्णता में रमे
हम औरों द्वारा हम पर लादी पहचान से मुक्त
तन्मय हो रहते हैं
अपनी उस पहचान में
जो कभी बदलती नहीं है
पर नित्य नई है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जून २० १ ३
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