यह जो है
एक शून्य सा
मंथर गति से
चलती हुई
जीवन की लकीर से झनझनाता
इस शून्य में ढूढता हूँ
अपना वह चेहरा
जो शेष रहता है
पार हर परिवर्तन के
और ढूंढते ढूंढते अनायास ही
जब छूट जाती है
ढूँढने की जरूरत
मिल जाता है
यह एक कुछ
मिलने और न मिलने से परे का
इसके साथ
उतर जाता हूँ
ऐसी नींद में
जिसके भीतर जाग्रति है
और इस जाग्रति में
ऐसा यह क्या कि
भेद नहीं रहता
मुझमें और सूरज में
ऐसा यह क्या की
मैं अपने आप से
प्रकट होते
अनाम उजियारे में
भीगता
पुष्ट होता हूँ
भरा हुआ
अपने अकाट्य होने के बोध से
छलछलाता हूँ
प्यार से
और लगता है
प्यार की यह लहर
जगत के इस छोर से
उस छोर तक जायेगी
सबके पास
अक्षय प्रसन्नता का उपहार पहुंचाएगी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जून २ ० १ ३
1 comment:
प्रेम ही है, जो शून्य को पूरा भर पाता है।
Post a Comment