शब्दों का हाथ थाम
उतर कर शिखर से
आँख मूँद कर
कुछ देर
अब
देखता हूँ
फूलों की नई नई घाटियाँ
जहाँ तक ले आये हैं शब्द
२
आविष्कार अपने भीतर
करना है जिसका
वह मैं हूँ
या तुम
या वह एक
जिसमें घुल मिलकर
मैं और तुम
जब
अपना अपना परिचय छोड़ कर
सम्माहित होते
उस एक मैं
उम्र आता है
सारी सृष्टि का सौंदर्य
और
पसर जाता है
आदि-अंत रहित मौन सा
३
इस बार भी
छेड़ कर शाखा शाश्वत वृक्ष की
भीग लिया हूँ
करुनामय स्पर्श में
अपने अंतस में
यह नूतनता की नमी जो है
इसमें
खिल रहे हैं
कृतज्ञता पुष्प
इन्हें तुम्हारी चरणों तक पहुंचाने
आव्हान कर रहा तुम्हारा
यह जानते हुए भी की
हर पुष्प के खिलने में भी
अनुस्यूत है
उपस्थिति तुम्हारी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जून २० १ ३
2 comments:
स्वयं को शब्दों में व्यक्त करें या निशब्द रहें।
अद्भुत ...!!
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