Friday, May 31, 2013

यह क्षण इतना निश्छल

 
यह क्षण 
इतना निश्छल 
जैसे ओस की बूँद 
गुलाब के फूल की पत्ती पर 
तिरती हो जैसे 
सुन्दरता गीली 

इस क्षण 
खोलने अनंत का द्वार 
बढ़ा कर हाथ
 
विस्मित होता हूँ 
विलीन हो चला है 
भेद भीत और किवाड़ का 
 
इस क्षण 
लिखते हुए 
अपनी विरासत 
सत्य है 
यह अधिकार 
पूरी सृष्टि 
किसी के नाम लिख देने का जब 
 
इतना स्पष्ट है 
अपने अनवरत होने का बोध 
और यह भाव भी
की पूर्ण समृद्धि के भाव में 
न कोइ किसी को कुछ दे पाता है 
न कोइ किसी से कुछ ले पाता है

इस क्षण 
लेन- देन से परे 
मगन अपने आप में 
देख रहा हूँ 
मेरे रोम रोम से 
शांत रश्मियों का फूटना 

इस एक क्षण में 
सम्माहित 
चिर काल का जीवन 
जैसे 
यशोदा मैय्या को 
दिखाई दे गया 
ब्रह्माण्ड 
नन्हे कन्हैय्या के मुख में 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
३१   मई २ ० १ ३
 
 

2 comments:

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बढिया
बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय said...

तृप्ति मिले जब,
क्षण अनन्त वह।

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