यह क्षण
इतना निश्छल
जैसे ओस की बूँद
गुलाब के फूल की पत्ती पर
तिरती हो जैसे
सुन्दरता गीली
इस क्षण
खोलने अनंत का द्वार
बढ़ा कर हाथ
विस्मित होता हूँ
विलीन हो चला है
भेद भीत और किवाड़ का
इस क्षण
लिखते हुए
अपनी विरासत
सत्य है
यह अधिकार
पूरी सृष्टि
किसी के नाम लिख देने का जब
इतना स्पष्ट है
अपने अनवरत होने का बोध
और यह भाव भी
की पूर्ण समृद्धि के भाव में
न कोइ किसी को कुछ दे पाता है
न कोइ किसी से कुछ ले पाता है
इस क्षण
लेन- देन से परे
मगन अपने आप में
देख रहा हूँ
मेरे रोम रोम से
शांत रश्मियों का फूटना
इस एक क्षण में
सम्माहित
चिर काल का जीवन
जैसे
यशोदा मैय्या को
दिखाई दे गया
ब्रह्माण्ड
नन्हे कन्हैय्या के मुख में
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३१ मई २ ० १ ३
2 comments:
बढिया
बहुत सुंदर
तृप्ति मिले जब,
क्षण अनन्त वह।
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