अपने हाथ बाँध कर
देखता हूँ
बंधता नहीं
मेरा खुलापन
मुक्त पवन
सांसों में
गाती है
विराट का उल्लास
बंधन वहां है
जहां अपूर्णता है
सुन कर तुमसे
अपनी पूर्णता का गान
अब
रमा हुआ आपने आप में
देखता हूँ
है इतना अवकाश मुझमें
की सहेज लूं
एक दो नहीं
अनंत सम्बन्ध सेतु
यह अक्षय प्रीत का गौरव
खिला है
मेरे भीतर
तुम्हारे अनुगृह से
इस तरह की
अनायास ही
समझ में आने लगा है
अर्थ वसुधैव कुटुम्बकम का
अशोक व्यास
न्यूयार्क अमेरिका
२९ मई २० १ ३
6 comments:
अतीव सुंदर
बढिया
बहुत सुंदर
बंधन वहां है
जहां अपूर्णता है
सुन कर तुमसे
अपनी पूर्णता का गान
अब
रमा हुआ आपने आप में
gyanvardhak ....man kendrit karti hui ....!!
bahut sundar rachna ....!!
सारा जग, एक विराट का अंश, अपना लगता है।
Post a Comment