१
अब कविताओं का मौसम बीत गया
हँसते हँसते कह गया वह
पेड़ पर नंगी शाखाओं की तरफ देखता
सूखे पत्तों के ढेर पर उचटती नज़र डालता
अपनी स्मृतियों में
ठहरे हुए सुख-संतोष की चमक को सहलाता
इस पल
उतरते
स्वर्णिम मौन में
भीग कर
विराट से
कह उठा
मन ही मन
इतने सारे खेल दिखा कर
जताया तो यही
की सत्य तो तुम ही हो
फिर ओ केशव
क्या आवश्यकता थी
इस सारे ताम-झाम की
२
चलते चलते
सोचता रहा
वह
उसकी सिखाने की सूक्ष्म कला के बारे में
जितना जितना बुद्धू बना
पिछड़ता रहा
सीख अपनाने में
उतने धैर्य से
नए नए रूपक दिखला कर
सिखलाने का रसमय प्रयास करता रहा है वह
और अब
हंस पडा इस बात पर
की
सीखे हुए को
ठहराए रखने की कला
अब तक सीख कहाँ पाया है वह
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ मई २ ० १ ३
3 comments:
आपकी कविता में प्रार्थना वाला एक भाव है जिसको पढकर मन को शांति मिलती है.
-Abhijit (Reflections
बहुत सुंदर ..
बहुत ही सुन्दर..
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