यह सब जो खो जाना है
ये सब
इतना शांत
इतना सुन्दर
अभी
सूर्योदय के कुछ पल बाद
वसंत के आगमन की आहटें सुनाती
यह
मद्धम सी रहस्यमय, पारदर्शी चादर
सहसा
अपने में समा कर मुझे
एक
अनिर्वचनीय सौन्दर्य का
हिस्सा बनाती
कहीं न कहीं
यह
प्रश्न भी छोड़ जाती
मैं क्या अंश हूँ उसी का
जिसे खो जाना है
फिर क्यूं लगता है
कुछ ऐसा भी है मुझमें
जिसे न खोना है न पाना है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ ९ अप्रैल २ ० १ ३
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