हर बार
इसी तरह
एक अंदरूनी परत
अनछुई
परे स्पर्श के
रह रह कर
अपने होने का बोध जगाती
समझ से परे होकर भी
ना जाने
किस रास्ते से आकर
समझ पर
छा जाती
२
किस का है हम पर अधिकार
हम हैं कौन आखिरकार
कभी संबंधों में ढूंढते सार
कभी चले जाते संबंधों के पार
३
जीवन एक पहेली
एक यात्रा
सबका साझा
एकदम एकाकी
है क्या आखिर?
ये साँसों की श्रंखला
कभी
फुर्सत के क्षणों में
इस और ध्यान जाता है
या शायद
जब इस तरफ ध्यान जाता है
फुर्सत अपने आप आ जाती है
४
अक्सर
जिसे हम देख-छू पाते हैं
उसे ही
मानते हैं सत्य
और कभी
यह स्पष्ट हो जाता है
की सत्य यदि
हमारे देखने सुनने जानने तक ही
सीमित हो जाता
तो हमारी सीमितता में
सत्य अपनी सत्यता को
खो जाता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मार्च २० १ ३
2 comments:
एक से जुड़कर दूसरी और बढ़ती जाती यह श्रंखला..
कभी
फुर्सत के क्षणों में
इस और ध्यान जाता है
या शायद
जब इस तरफ ध्यान जाता है
फुर्सत अपने आप आ जाती है
sundar abhivyakti ....
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