अर्थ क्या है
मेरे होने का
प्रकट होते हुए
जब पूछते हैं शब्द
देखता हूँ
मौन की ओर
और
मेरे साथ साथ
शब्द भी पा लेते हैं
सृजनशील सेतु का
नित्य विकसित स्वरुप
अर्थ बना बनाया
पका पकाया
रचा रचाया
व्यर्थ है
हम दोनों के लिए
चेतना के प्रवाह में
चित्र हमारे
होते जाते हैं
अर्थवान
गति के साथ
और इन सब
बदलते हुए अर्थों को आधार देता
एक वो जो अर्थ है
वो मौन नहीं
महामौन की मांग करता है
शब्द के साथ मिल कर
मैं
ढूंढता हूँ
ठिकाना महामौन का
अपनी चेतना के
उद्गम तक जा जाकर
और फिर
सहसा सारे उपक्रम छोड़ कर
सघन मुस्कान लिए
लौट आता हूँ
पूर्णता का ताज़ा स्वाद लिए
जहाँ
अर्थ का उद्घाटन
कुछ करने या होने की मांग नहीं करता
बस होता है
सहज ही
सर्व साक्षी के एक सूक्ष्म बोध में
ऐसे
जैसे की
अपने मुख में दिखला दे
सारे ब्रह्माण्ड को अच्युत
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
1 अक्टूबर 2012
2 comments:
शब्द से कविता तक की प्रज्ञान प्रखर प्रदीप्त यात्रा .....
सुंदर रचना ....!!
आभार ।
यहाँ तो शब्द भी अपने अर्थ खोजने में लगे हैं, हमारी तरह।
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