मुस्कान की कोपलें फूटती हैं
किरणें आत्मीयता के उजियारे की
फैलती हैं
रमा हुआ
अपने विस्तृत एकांत में
अब
जब
बतिया सकता हूँ
सबसे
किसी भी क्षण
सहसा
यह एक मधुर मौन की नदी
सुनाते हुए अपनी कल-कल मुझे
उन्ड़ेलती है
प्रसन्नता का भीगा स्पर्श
जिसे लेकर
तुम्हें छू लेने के लिए
सहज है
इस पुलकित निश्चलता में
तन्मय होकर
मिला देना
अपनी सांस को
विराट की सांस के साथ
मुस्कान की कोपलें
फूटते फूटते
छू रही हैं
हर दिशा को
और
मैं
अपने आप में मगन
अपना सब कुछ
सौंपने को तत्पर हूँ
उसे
जिससे
पाया है सब कुछ
और
जिसकी महिमा गाने से ही
सार्थक है
मेरा हर एक पल
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ मार्च २०१२
5 comments:
यह एक मधुर मौन की नदी!
बेहद खूबसूरत भाव !
पहले एकांत सिकुड़ा रहता था, अब विस्तृत हो गया है।
एक मधुर मौन की नदी!
सुन्दर लिखा है आपने,
सादर शुभकामनाएं!
अगर ये विराट की ओर यात्रा का संकेत है तो बहुत शुभ है ...अगर ये महज एक कविता है तो भी सुंदर भावों के लिए बधाई ...और दुआ कि ऐसे भाव बार बार उठें!
sundar panktiyan
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