Thursday, March 15, 2012

अपने विस्तृत एकांत में



मुस्कान की कोपलें फूटती हैं
किरणें आत्मीयता के उजियारे की
फैलती हैं

रमा हुआ 
अपने विस्तृत एकांत में
अब
जब
बतिया सकता हूँ
सबसे
किसी भी क्षण
सहसा

यह एक मधुर मौन की नदी
सुनाते हुए अपनी कल-कल मुझे
उन्ड़ेलती है
प्रसन्नता का भीगा स्पर्श
जिसे लेकर
तुम्हें छू लेने के लिए
सहज है
इस पुलकित निश्चलता में
तन्मय होकर
मिला देना
अपनी सांस को
विराट की सांस के साथ

मुस्कान की कोपलें 
फूटते फूटते
छू रही हैं
हर दिशा को
और
मैं
अपने आप में मगन
अपना सब कुछ
सौंपने को तत्पर हूँ
उसे
जिससे
पाया है सब कुछ
और
जिसकी महिमा गाने से ही
सार्थक है 
मेरा हर एक पल


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ मार्च २०१२ 

5 comments:

वाणी गीत said...

यह एक मधुर मौन की नदी!
बेहद खूबसूरत भाव !

प्रवीण पाण्डेय said...

पहले एकांत सिकुड़ा रहता था, अब विस्तृत हो गया है।

Madhuresh said...

एक मधुर मौन की नदी!
सुन्दर लिखा है आपने,
सादर शुभकामनाएं!

आनंद said...

अगर ये विराट की ओर यात्रा का संकेत है तो बहुत शुभ है ...अगर ये महज एक कविता है तो भी सुंदर भावों के लिए बधाई ...और दुआ कि ऐसे भाव बार बार उठें!

Onkar said...

sundar panktiyan

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