गंतव्य का प्रश्न
जब
नए सिरे से
अजगर की तरह
निगलने को होता है
अब तक
संजोया संतुलन और शांति ,
तब
इस मायावी तिलिस्म में
घुस कर
सामूहिक विनाश का
निमंत्रण स्वीकार करते हुए
सुरक्षा की आश्वस्ति देता है
एक तुम्हारा साथ
क्या ये सही नहीं
की
तुम ही गंतव्य हो
ओ गोपाल
जो क्षण क्षण साथ रह कर
छुप जाने का खेल खेलते हो
फिर
ये
पाने और खोने के बंधन
ये
स्वीकारने का मद
और अस्वीकार कर दिए जाने की कटुता
ये सब
जिस तरह ढहा देते हैं
बरसों से बटोरी स्थिरता
क्या ये सब
इसलिए
की तुम
ठठा कर हंस सको
मुझ पर
या अपनी ही क्रीडा पर हँसते हो तुम
की मुझ पर
अपना रंग चढाने के खेल में
पूरी तरह सफल नहीं हुए
तुम
अब तक
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ जनवरी २०१२
2 comments:
रंग चढ़ेगा धीरे धीरे..
बहुत बढ़िया
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