इतने दिनों बाद
फिर यहाँ से देख रहा हूँ
जब तुम्हें
नयेपन का उजियारा
छिटका है
इस छोर से उस छोर तक
मेरी मुस्कान में
उपहार से खनक रहे हैं
उसकी स्मृति के
हर तरफ
उसे देखना नहीं हो रहा पर
कण कण
दे रहा है आश्वस्ति
उसके होने की
अब भी
मौन आलिंगनबद्ध कर मुझे
तत्पर है
उसके परम शांति नगर में ले जाने को
जहाँ
शब्द अपना आकार छोड़ कर
लीन हो जाते हैं
सीमा रहित अर्थ प्रवाह में
यह लबालब आनंद
मुझसे हो न हो
मुझमें भी है तो अवश्य
जैसे की तुममें भी है
तभी तो
ये शब्द
अनर्गल प्रलाप नहीं
अर्थपूर्ण संकेत से भरे लग रहे हैं तुम्हें
और तुम्हारे लिए ही है
यह निमंत्रण
चलें
मौन के द्वार से
अपने अपने आनंद का उत्सव मनाएं
कुछ देर
समय की परिधि लांघ कर
स्वयं को छू आयें
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ जनवरी २०११
3 comments:
समय की परिधि लांघ कर स्वयं को छू लेना ..अति सुन्दर..
आपको एक हफ्ते पूर्व निम्न सन्देश मेल किया था.
"अशोक जी, आपसे ब्लॉग जगत में परिचय होना मेरे लिए परम सौभाग्य
की बात है.बहुत कुछ सीखा और जाना है आपसे.इस माने में वर्ष
२०११ मेरे लिए बहुत शुभ और अच्छा रहा.
मैं दुआ और कामना करता हूँ की आनेवाला नववर्ष आपके हमारे जीवन
में नित खुशहाली और मंगलकारी सन्देश लेकर आये.
नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ."
आशा है मेरी शुभकामनाएँ आपको स्वीकार्य होंगीं.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति हमेशा ही मन को प्रसन्न कर देती है.
मैंने अपने ब्लॉग पर 'हनुमान लीला भाग-२'
प्रकाशित की है.समय मिलने पर दर्शन जरूर दीजियेगा.आपने पिछली बार अपनी सुन्दर टिप्पणी मेल की थी,जिसे मैंने अपने ब्लॉग पर पेस्ट कर दिया था.
इस बार दर्शन दीजियेगा,अशोक जी.
आपके शुभ दर्शन से मेरा ब्लॉग आनन्द में डूब शोकरहित हो जायेगा जी.
राकेशजी
आपकी विनम्रता का कायल हूँ
शिरडी बाबा पर एक नूतन कार्यक्रम
'शिरडी साईं, विश्व साईं' की तैय्यारी में
लगा रहा, आनंद के साथ,
कविता लिखने का क्रम भी कुछ दिन
छूट गया
नव वर्ष पर अभिनन्दन के क्रम से भी
दूर रहा, आपका आभार और धन्यवाद.
वैसे साधना का पथ फिसलन से भरा है
कभी भी अहंकार छा जाए, गुरुचरणों
के आश्रय से द्रष्टि हटे, तो बड़ी चोट
लगती है
शेष फिर
सादर नमन
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