एक बार और
जाते जाते
गले मिले दोनों
फिर अलग होकर
देखा एक दूसरे को
दोनों के चेहरे पर
छिटकी थी संतोष की चमक
दोनों मगन थे
आनंद में
इस बार
दोनों के पास थी ताकत
विस्तार को पुकार कर
निराकार हो जाने की
इस बार
मिल कर
दोनों ने जान लिए थे
गुप्त पथ
आतंरिक कोष के
और
हो चले थे
मालामाल
कालातीत संपत्ति से
इस बार
ये अंतिम आलिंगन है
ऐसा लगा दोनों को
क्योंकि
इसके बाद
चेतना के सूक्ष्म उजियारे पथ पर
शेष नहीं रहती
आलिंगन द्वारा उसे अभिव्यक्त करने
या उसकी अनुभूति करने की कोई चाह
जिसके बोध से
अर्थवान बन जाता है
हर आलिंगन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ दिसम्बर २०११
3 comments:
क्या बात है सर बहुत सुंदर..
निशब्द !!
मेरी नई रचना "तुम्हे भी याद सताती होगी"
आलिंगन में सब दे डाला, जो कुछ भी था।
इस बार
ये अंतिम आलिंगन है
ऐसा लगा दोनों को
क्योंकि
इसके बाद
चेतना के सूक्ष्म उजियारे पथ पर
शेष नहीं रहती
आलिंगन द्वारा उसे अभिव्यक्त करने
या उसकी अनुभूति करने की कोई चाह
जिसके बोध से
अर्थवान बन जाता है
हर आलिंगन
बस एक उसी आलिंगन की चाह मे तो सभी भटक रहे हैं………शानदार
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