Saturday, December 17, 2011

अंतिम आलिंगन

 
एक बार और
जाते जाते
गले मिले दोनों
फिर अलग होकर
देखा एक दूसरे को
 
दोनों के चेहरे पर
छिटकी थी संतोष की चमक
 
दोनों मगन थे
आनंद में
 
इस बार 
दोनों के पास थी ताकत
विस्तार को पुकार कर
निराकार हो जाने की
 
इस बार
मिल कर 
 दोनों ने जान लिए थे
 गुप्त पथ
आतंरिक कोष के 
और
हो चले थे
मालामाल
कालातीत संपत्ति से
 
इस बार
ये अंतिम आलिंगन है
 ऐसा लगा दोनों को
क्योंकि
इसके बाद
चेतना के सूक्ष्म उजियारे पथ पर
शेष नहीं रहती 
आलिंगन द्वारा उसे अभिव्यक्त करने
या उसकी अनुभूति करने की कोई चाह 
जिसके बोध से
अर्थवान बन जाता है
हर आलिंगन

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ दिसम्बर २०११  
         

3 comments:

कुमार संतोष said...

क्या बात है सर बहुत सुंदर..
निशब्द !!

मेरी नई रचना "तुम्हे भी याद सताती होगी"

प्रवीण पाण्डेय said...

आलिंगन में सब दे डाला, जो कुछ भी था।

vandana gupta said...

इस बार
ये अंतिम आलिंगन है
ऐसा लगा दोनों को
क्योंकि
इसके बाद
चेतना के सूक्ष्म उजियारे पथ पर
शेष नहीं रहती
आलिंगन द्वारा उसे अभिव्यक्त करने
या उसकी अनुभूति करने की कोई चाह
जिसके बोध से
अर्थवान बन जाता है
हर आलिंगन

बस एक उसी आलिंगन की चाह मे तो सभी भटक रहे हैं………शानदार

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