मुग्ध
तुम्हारे खेल पर
हंस हंस कर
देखता हूँ अपने घाव
चोट
जहाँ भी लगे
बढ़ता जाए है
तुमसे लगाव
२
उसके आने पर
इतनी रौनक लगी
इक्कट्ठे हो गए लोग
इतने सारे,
पर मैं उसे
देख ही ना पाया
अपनी छोटी- छोटी
उलझनों के मारे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ दिसंबर २०११
4 comments:
Sunder kshanikayen..
Aabhaar..!
बढ़ता जाए है तुमसे लगाव
आपकी भक्ति में है ऐसा ताव
प्रस्तुत करते हैं अति उच्च भाव
प्रभु के नाम की लेकर नाव
आप पहुँचा ही देंगें अपने गावँ
परम धाम ही है सबका ठांव
बहुत बहुत आभार ,अशोक भाई.
सारगर्भित..
The first one is awesome... very nice poems..:)
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