किसी के अद्रश्य हाथों ने
भर दिया
कमरे में
झकाझक उजाला,
सज गयी
इस क्षण के गले में
आस की जयमाला
कमरे के केंद्र में बैठ मैं
छायाओं के आकार बनाते
इस सौम्य उजाले के
मौन खेल देख कर
मुस्कुराता हूँ
और
एक अद्रश्य उपस्थिति को
गले लगाने
अपनी बाहें फैलाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ नवम्बर 2011
4 comments:
betareen soch
Sunder
waah waah kya bat kahi hai
मौन को अंधकार प्रकाशित है आजकल।
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