अब फिर से
पोंछ कर सलेट को
सोच रहा हूँ
लिख ही दूं
वह इबारत इस बार
जिसे मिटाने की
जरूरत ना रहे कभी
हाथ कांपते हैं
शब्द उतरने से पहले
जांच रहे हैं
मेरी अँगुलियों की निष्ठा
जांच रहे हैं
शेष तो नहीं
ह्रदय में कोई कोलाहल
पुकार में इस बार
जो तीव्रता है
रुलाई बन कर फूटने को है
विराट के चरणों में
पर शब्द अब तक
ठिठक कर
देख रहे हैं
मेरे भीतर
वह प्रमाण
जो मुझे एक कर दे अमिट से
शायद मिला नहीं
वह संकेत शब्दों को
ऐसा ही लगता है
खाली सलेट देख कर
फिर भी
कुछ तो उतरा है
शब्दातीत मेरी साँसों में
इस क्षण
जिसके कारण
यह अदृश्य शांति सी
बिछ गयी है
और छू रही है
शब्दातीत की करूणा
बह निकली
गंगा जमुना मेरे नैनों से
जाग गया अंतस में
पवित्रता का रसमय स्पर्श
अशोक व्यास
२६ जून २०११
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जब खाली खाली लगता है,
तो मन का अन्तर जगता है।
और छू रही है
शब्दातीत की करूणा
बह निकली गंगा जमुना मेरे नैनों से
वाह! मन मगन हो गया है,अशोक जी.
सारगर्भित
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