Sunday, June 26, 2011

शब्दातीत की करूणा


अब फिर से
पोंछ कर सलेट को
सोच रहा हूँ
लिख ही दूं
वह इबारत इस बार
जिसे मिटाने की
जरूरत ना रहे कभी

हाथ कांपते हैं
शब्द उतरने से पहले
जांच रहे हैं
मेरी अँगुलियों की निष्ठा

जांच रहे हैं
शेष तो नहीं
ह्रदय में कोई कोलाहल

पुकार में इस बार
जो तीव्रता है
रुलाई बन कर फूटने को है
विराट के चरणों में

पर शब्द अब तक
ठिठक कर
देख रहे हैं
मेरे भीतर
वह प्रमाण 
जो मुझे एक कर दे अमिट से

शायद मिला नहीं 
वह संकेत शब्दों को

ऐसा ही  लगता है
खाली सलेट देख कर

फिर भी
कुछ तो उतरा है
शब्दातीत मेरी साँसों में
इस क्षण 

जिसके कारण
यह अदृश्य शांति सी
बिछ गयी है

 और छू रही है
शब्दातीत की करूणा
बह निकली
गंगा जमुना मेरे नैनों से

जाग गया अंतस में
पवित्रता का रसमय स्पर्श



अशोक व्यास
२६ जून २०११ 
               

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जब खाली खाली लगता है,
तो मन का अन्तर जगता है।

Rakesh Kumar said...

और छू रही है
शब्दातीत की करूणा
बह निकली गंगा जमुना मेरे नैनों से

वाह! मन मगन हो गया है,अशोक जी.

Arun sathi said...

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