कविता कभी तकिया बन जाती है
कभी बिस्तर
कभी लिहाफ
और फिर
स्थूल से सूक्ष्म की तरफ चलती
नींद बन कर स्फूर्ति का रूप लेने के बाद
लहरों के साथ खेलने की ललक का
उपहार देकर
अब आई है
सूरज की किरण बन कर
सौंप कर नए दिन का उपहार
सौम्यता से दे रही है संकेत
उठो, चलो, अपनाओ
अपने आपको
विविध रूपों में
और
देखो
एक से अनेक
अनेक से एक
होने की
यात्रा में छुपा
रसीला खेल अनंत का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ मई २०११
3 comments:
एक से अनेक
अनेक से एक
होने की
यात्रा में छुपा
रसीला खेल अनंत का
वाकई ..सर्वव्यापी सर्वोपरि सर्वत्र विद्यमान ...!!
कविता को तकिया,बिस्तर,लिहाफ ,नींद,स्फूर्ति और फिर सूरज की किरण बनकर नए दिन का उपहार देते बहुत अच्छा लगा.और उपहार भी क्या ? एक सुन्दर उपदेश 'एक से अनेक और अनेक से एक होने की यात्रा' का,जिसमें छिपे अनन्त के रसीले खेल के अहसास का.
मैं तो नतमस्तक हूँ आपकी सुन्दर कल्पना के आगे.
मेरे ब्लॉग पर आकर आपने अपने सुन्दर सुवचनों
से पावन कर दिया.बहुत बहुत आभार आपका
अनंत के खेल भी लम्बे और आनन्ददायक होते हैं।
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