Tuesday, May 24, 2011

आलोक की गागर


स्तुतियों के मोद से
रुकते नहीं भास्कर
चलते चलते छलकाते
आलोक की गागर


पहले जब बच्चा था
निकर की जेब उंडेलने पर
निकलती थी कोई टूटी पेंसिल, कोइ रंग-बिरंगा पंख,
किसी पैकेट से निकली चमकती पन्नी

फिर पर्स, पेन, गाडी की चाबियाँ इत्यादी

और अब
जेब नहीं है वस्त्रों में
सबसे बहुमूल्य 
धडकनों में रहता हूँ
जिसे 
बिना किसी झिझक के
सबके सामने रखता हूँ
पर इसकी चमक
 कोई-कोई ही देख पाता है
इनमें से कोई बिरला ही इस चमक को छूकर देखने की
इच्छा जताता है
और 
यूं भी होता है
 कोई इस चमक को अपने साथ ही लिए जाता है
फिर भी
 अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ मई २०११      
      

6 comments:

Anupama Tripathi said...

फिर भी
अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है

बहुत विस्तार है आपकी सोच में ..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...!!

vandana gupta said...

बेहद उम्दा।

Rakesh Kumar said...

क्या बात है अशोक भाई

बिरला ही इस चमक को छूकर देखने की
इच्छा जताता है
और यूं भी होता है
कोई इस चमक को अपने साथ ही लिए जाता है
फिर भी अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है

'पूर्ण इद पूर्ण इदं पूर्णात पूर्णम उदच्येत'

बहुत सुन्दर दिव्य अनुभव कराते हैं आप.

प्रवीण पाण्डेय said...

हर पल बढ़ती रहती है यह ज्योत्सना।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर रचना ...

Ashok Vyas said...

पञ्च परमेश्वर रूपी अनुपमजी, वंदनाजी, राकेशजी, प्रवीणजी और संगीताजी को धन्यवाद सहित नमन

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