स्तुतियों के मोद से
रुकते नहीं भास्कर
चलते चलते छलकाते
आलोक की गागर
२
पहले जब बच्चा था
निकर की जेब उंडेलने पर
निकलती थी कोई टूटी पेंसिल, कोइ रंग-बिरंगा पंख,
किसी पैकेट से निकली चमकती पन्नी
फिर पर्स, पेन, गाडी की चाबियाँ इत्यादी
और अब
जेब नहीं है वस्त्रों में
सबसे बहुमूल्य
धडकनों में रहता हूँ
जिसे
बिना किसी झिझक के
सबके सामने रखता हूँ
पर इसकी चमक
कोई-कोई ही देख पाता है
इनमें से कोई बिरला ही इस चमक को छूकर देखने की
इच्छा जताता है
और
यूं भी होता है
कोई इस चमक को अपने साथ ही लिए जाता है
फिर भी
अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ मई २०११
6 comments:
फिर भी
अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है
बहुत विस्तार है आपकी सोच में ..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...!!
बेहद उम्दा।
क्या बात है अशोक भाई
बिरला ही इस चमक को छूकर देखने की
इच्छा जताता है
और यूं भी होता है
कोई इस चमक को अपने साथ ही लिए जाता है
फिर भी अनंत आनंद की इस ज्योत्स्ना से
कुछ नहीं घट पाता है
'पूर्ण इद पूर्ण इदं पूर्णात पूर्णम उदच्येत'
बहुत सुन्दर दिव्य अनुभव कराते हैं आप.
हर पल बढ़ती रहती है यह ज्योत्सना।
बहुत सुन्दर रचना ...
पञ्च परमेश्वर रूपी अनुपमजी, वंदनाजी, राकेशजी, प्रवीणजी और संगीताजी को धन्यवाद सहित नमन
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