मन जागता है
कभी कभी इतना अधिक
की
चकमक चांदनी की चकाचौंध
ठहर जाती है
चेतना पर
विलुप्त हो जाती
परिचय को परिभाषित करती
परिधि
सन्दर्भ रहित उपस्थिति की
यह यात्रा
और अधिक सुरमय बना देती
साँसों को
मन जागता है
कभी कभी इतना अधिक
की जैसे इन्द्रियों से परे
कर रहा हो प्रवेश
सीमातीत लोक में
देख कर मन को
अंतरहित उपस्थिति में घुलते हुए
एक विस्तृत मौन में लीन
कहने-सुनने से परे
आत्मसात करते हुए बोध विराट का
एक कुछ
जो रोक कर मुझे फिर से
आकार के वस्त्र पहना देता है
वह चाहता है मैं
अभी कुछ और वसंत देखूं
और
नव कुसुमो से लदी डालियों को झूमता देख कर
उसकी आराधना के गीत का छंद बनता जाऊं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ अप्रैल २०११
5 comments:
नव कुसुमो से लदी डालियों को झूमता देख कर
उसकी आराधना के गीत का छंद बनता जाऊं
sunder abhivyakti .
वाह्……………इस रचना मे तो गूंगे के गुड सा स्वाद है।
सुन्दर पंक्ति-हार।
चेतना पर चकमक चांदनी की चकाचौंध का ठहर जाना - मन को छू गया . आभार .
अनुपमाजी आपकी प्रतिक्रिया है अनुपम
वंदनाजी आपकी संवेदनशीलता का वंदन
प्रवीणजी आप तो बहु आयामी विधाओं में प्रवीण हैं
स्वराज्य जी आपकी करूणा का स्पर्श मिलता रहे
सबको धन्यवाद
Post a Comment