यह जो
बंद घरों के बाहर
बिना किसी के देखे
धीरे धीरे
उतर आता है
फ़ैलता है बिना किसी को जताए
अपने आने के लिए
किसी विशेष स्वागत की अपेक्षा किये बिना
करता है स्वागत
खिड़की और द्वार खोल कर देखने वाले का
अपनी आश्वस्त करती
अद्भुत उपस्थिति से
यह
यही उजियारा
दिनकर का विस्तृत उपहार
किसी निर्मल क्षण में
कृतज्ञता से भर कर
सृजनात्मकता, शक्ति, सौंदर्य और श्रद्धा के इस कोष को
रोम-रोम से करता हूँ नमन
सांस सांस से जुड़ जाता हूँ
इस विराट व्यवस्था के अपार सूत्र से
और
अपने सीमित संदर्भों के घेरे से
छूट जाता हूँ
अनायास
हर दिन
सुलभ करवाता है
मुक्ति की अनुभूति
वाह! क्या बात है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अप्रैल २०११
4 comments:
हर दिन में मुक्ति की अनुभूति।
इस विराट व्यवस्था के अपार सूत्र से
और
अपने सीमित संदर्भों के घेरे से
छूट जाता हूँ
अनायास
sunder rachna
praveenjee aur anupamajee ke
prati abhaar
विराट की अनुभूति,
फिर हर दिन मुक्ति ,
सीमित अब नहीं कुछ ,
अब है सिर्फ अनंत |
अशोकजी, गहराई है रचना में |
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