Friday, April 8, 2011

कृतज्ञता से भर कर


यह जो
बंद घरों के बाहर
बिना किसी के देखे
धीरे धीरे
उतर आता है
फ़ैलता है बिना किसी को जताए
अपने आने के लिए
किसी विशेष स्वागत की अपेक्षा किये बिना
करता है स्वागत
खिड़की और द्वार खोल कर देखने वाले का
अपनी आश्वस्त करती 
अद्भुत उपस्थिति से

यह
यही उजियारा
दिनकर का विस्तृत उपहार

किसी निर्मल क्षण में
कृतज्ञता से भर कर
सृजनात्मकता, शक्ति, सौंदर्य और श्रद्धा के इस कोष को
रोम-रोम से करता हूँ नमन
सांस सांस से जुड़ जाता हूँ
इस विराट व्यवस्था के अपार सूत्र से
और
अपने सीमित संदर्भों के घेरे से
छूट जाता हूँ
अनायास

हर दिन
सुलभ करवाता है
मुक्ति की अनुभूति 
वाह! क्या बात है 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अप्रैल २०११  


         

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

हर दिन में मुक्ति की अनुभूति।

Anupama Tripathi said...

इस विराट व्यवस्था के अपार सूत्र से
और
अपने सीमित संदर्भों के घेरे से
छूट जाता हूँ
अनायास

sunder rachna

Ashok Vyas said...

praveenjee aur anupamajee ke
prati abhaar

sunil purohit said...

विराट की अनुभूति,
फिर हर दिन मुक्ति ,
सीमित अब नहीं कुछ ,
अब है सिर्फ अनंत |

अशोकजी, गहराई है रचना में |

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