लो
आज एक नया उपहार
नए दिन के साथ
प्रेम की पालकी में सहेज कर
ममतामयी स्पर्श सहित
लेकर आ गयी है
साँसों में
गुनगुनाने वाली
सृष्टिकर्त्री माँ
उपहार विलक्षण
कई परतों वाला
उत्सुकता से खोलना है
एक के बाद दूसरी परत
दूसरी के बाद तीसरी
उत्साह के साथ धैर्य रहा
तो उपहार का मर्म समझ आये
शायद इसमें
किसी अनमोल खजाने का नक्शा मिल जाए
संभव है कोई नायाब हीरा ही निकल आये
पर देखना, बिना इसकी ओर देखे
सारा दिन यूं ही ना ढल जाए
ऐसा ना हो, कल तक ये उपहार, अनछुआ ही
जहाँ से आया है,वहीं फिर लौट जाए
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, २५ जनवरी 2011
3 comments:
बेहद गहन अभिव्यक्ति।
यह कैसा उपहार है ? इसकी गहनता तक नहीं पहुँच पायी ...
किस रूप में उपहार मिल जाये, नहीं ज्ञात।
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