अमृत की प्यास उजागर कर
अब छोड़ चलें सब खंडित स्वर
मन का वह रूप बने हर क्षण
जिसमें अच्युत हो नित्य मुखर
हम देह प्रान्त के हैं वासी
पर विलसित हममें अविनाशी
एक उसकी ओर रमें निसदिन
जो है शाश्वत करूणा राशी
चल प्रेम प्रवाह मगन तन्मय
संग विश्वमूल के अपनी लय
अब गगन दिव्य आशीष लिए
वसुधा वत्सल, सागर चिन्मय
है चिर अमृतमय अपना घर
है सृजनशील मंगल निर्झर
अब आत्म सखा के साथ साथ
साँसों में अक्षत प्रेम डगर
ॐ
जय श्री कृष्ण
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ जनवरी 2011
5 comments:
वाह! बेहद सुखद्।
अन्तर की प्यास तो अमृतमयी ही है।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 25-01-2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
हम देह प्रान्त के हैं वासी
पर विलसित हममें अविनाशी
एक उसकी ओर रमें निसदिन
जो है शाश्वत करूणा राशी
आपकी रचना ने मन में अमृत स ही घोल दिया है ..बहुत अच्छी रचना
Sangeetaji,
man ka amrit kisi shabd se
sakriya hokar apnee upasthiti se
chetna ko avgat karvaye,
ye 'anant' ke kripa hai.
banee rahe
aapka, Praveenjee ka aur vandnajee
ka pratikriya vyakt karne ke liye
bahut dhanywaad
aur mangal kaamnayen
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