Saturday, January 22, 2011

मन कैसा अद्भुत है



मन कैसा अद्भुत है
कभी तुम्हें बुलाता है
कभी रूठ जाता है
कभी सबको अपनाता है
कभी एकाकी हो जाता है

मन के पास
अपना संसार बनाने और मिटाने का
यह जो हुनर है
ये कहाँ से आता है
कौन संशय और विश्वास के झूले
मन उपवन में चुपचाप धर जाता है
कैसे हो जाता है ऐसा
कि कभी
हर बात का सार खो जाता है
और कभी कण कण में
अनंत का दरसन हो जाता है

अशोक व्यास
२२ जनवरी २०११

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मन विचित्र है,
रहे अलग तो,
दाँय मचाये,
संग मित्र है।
मन विचित्र है।

हरकीरत ' हीर' said...

मन के पास
अपना संसार बनाने और मिटाने का
यह जो हुनर है
ये कहाँ से आता है....

मन को तो बाँधा नहीं जा सकता न ......
तभी शायद .....!!

vandana gupta said...

बस यही तो मन की गति है ……………मन से गहन और चंचल कोई नही……………बहुत सुन्दर भाव ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सच ही मन अद्भुत है ..

सुनील पुरोहित said...

कल्पना जन्म लेती है मन में,
अद्भुत है कविता का प्रसव भी,
गुण,रस,अर्थ,भाव से हो रंजित,
कवि के पहलु से छिटक जाती,
रोत्ता है रचियता उसके वियोग में,
फैली ख्याति प्रसवित कविता की,
पुलकित हो नव प्रसव में जुट जाता|

sunil purohit said...

अद्भुत मन है फिर भी प्यारा है,
संशय,अविश्वास को भी दे देता अवकाश,
प्रेम,करुणा से भी तो सटा पड़ा है,
हर किसी की चाहत तो यही पूरी करता है|

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