क्षितिज पर
पहुँच कर
मेरे हाथों ने
कुछ देर के लिए
मिला दिया था
धरती को आसमान से
जैसे कोई नन्हा बच्चा
पापा और मम्मी के हाथ थाम
दोनों को मिला दे
उनके बीच चलते चलते
२
अपनी पहचान का
नया-नया रूप
मिल जाता है
मुझे हर दिन
जहाँ से
उस असीम को
भेजता हूँ निमंत्रण
शब्द नगरी में
हर दिन वह कहला देता है
'आज नहीं कल आऊँगा'
इस तरह 'व्यक्त' ना होकर भी
वो मुझ पर
करता है कृपा
३
आस्था आशा की बड़ी बहन है
या शायद जननी है
पर
सज-धज कर
नए सन्दर्भों में
चुस्ती से अपनी शोखी लिए
आशा के रूठ जाने पर
उसे मना कर
मुस्कुराती है
और सौम्य आभा से
आशा को
सूरज की किरणों के साथ
खेलने ले आती है
४
मैं आशा नहीं
आस्था की पीढी का हूँ
इसलिए आशा को
कभी अपनी गोदी में खिलाता हूँ
कभी तुतलाते स्वर में
उससे बतियाता हूँ
और कई कई बार
आशा की दिव्य मुस्कान में
अमिट आस्था की झलक पाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ९ जनवरी 2011
1 comment:
सत्य है।
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