Thursday, December 2, 2010

विराट गगन को छू लेने

इस समय
जब बैठे हो ध्यान के लिए
मन दौड़ कर
कई दिशाओं से
सन्दर्भों के नए-पुराने कंकर बटोर कर
उलझा देना चाहता है
तुम्हें किसी पछतावे या किसी शिकायत के खेल में

इस समय
ध्यान के लिए बैठ कर
जब देख रहे हो मन की हलचल
और
शांत कक्ष भी बन गया है
जैसे कोलाहल भरे बाज़ार सा
ऐसे में
उठ कर चले ना जाना
करना प्रतीक्षा
साँसों पर ही नहीं
शरीर की सूक्ष्म हरकत पर
एक उपराम दृष्टि डाल कर
धीरे धीरे
धीमी होती लहरों में
तरंगित होगा
एक गहरी आश्वस्ति का वास
इस क्षण की विश्रांति में
खुल जाएगा
वह सुख
जो दुर्लभ है
और तब
अपने मन के पंखों में
विराट गगन को छू लेने की
अकुलाहट का आगमन
प्रफुल्लित कर देगा तुम्हें

यह उल्लास लेकर
लुटा सकते हो
अपार प्यार
पग पग पर

ये विश्वास लेकर
ऐसे अपना सकते हो
नए दिन को
कि जैसे तुम्हारी गति से
हर पग पर
हर संपर्क में
प्रकट होता जाए 
सार पावन तीर्थ का



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ दिसंबर २०१०, गुरुवार

2 comments:

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

jeevan ko sahi disha aur gati denewali...
atyant sookshm bhavon se poorn
sarthak evam sunder rachna...

प्रवीण पाण्डेय said...

यही विश्वास ही सब कुछ है।

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