Sunday, November 14, 2010

अपनी पहचान भुलाये बिना

 
क्यूं ऐसा होता है
भीड़ में
खो जाता है
मेरा एक विचार
बढ़ता हूँ 
लेकर गति
और दिशा 
औरों से उधार

गंतव्य पर
पहुँच कर भी
अधूरापन करता है
 सत्कार
तो निष्कर्ष ये है कि 
सतर्कता को
और प्रखर बनाना है
इस बार
 
स्वयं को
औरों से ही नहीं
अपने दिशाभ्रम से भी
बचाना है
भीड़ में
अपनी पहचान भुलाये बिना,
धीरे धीरे
आगे निकल जाना है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, १४ नवम्बर 2010




2 comments:

आशीष मिश्रा said...

बहोत ही सुंदर प्रस्तुति.......

प्रवीण पाण्डेय said...

भीड़ में न खोना बड़ा कठिन है।

सुंदर मौन की गाथा

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