मैंने
आभार की खिड़की खोली
कृतज्ञता की किरणों से जगमग करते आँगन में
आत्म-सौंदर्य का
अनछुआ आलोक
पसर गया
साँसों में
अनाम उल्लास का उजियारा फूटा
समर्पण की चहचहाहट करती
एक सौम्य चिड़िया ने
दृष्टि मात्र से
गूंथ दिए
जीवन के सब बिखरे हिस्से
अब यह जो
सघन मौन का माधुर्य है
इसे लेकर
पारदर्शी हो गयी हैं
घर की दीवारें
या शायद
अब दीवार नहीं कोई
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक
जो फैलाव है
वही मेरा घर है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ नवम्बर 2010
1 comment:
सृष्टि का फैलाव, सघन मौन, गहरा।
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