पुराने दिन
कहीं जाते नहीं हैं
बैठे रहते हैं
अपनी खुशबू के साथ
बहती नदी के किनारे
और
ये किनारा भी चलता है
साथ-साथ नदी के
किसी के रुकने का भ्रम
जरूरी है
गति का भान बनाए रखने के लिए
बस इसीलिए
रोक दिया है अब
तुम्हारी यादों की रेल का चलना
वैसे
बदलते बदलते भी
सचमुच बदला तो नहीं है
कुछ भी
भीतर किसी
अनाम स्थल के मधुर एकांत में
मैं वही हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ अक्टूबर २०१०
2 comments:
शान्त से बन पड़े रहते हैं, अपने होने का भाव दिखाने।
बहुत सुन्दर ख्याल्।
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