दबी-छुपी रहती हैं
कुछ कामनाएं
भीतर हमारे
ऐसे की हम भूल से जाते हैं उन्हें
और फिर
किसी अप्रत्याशित क्षण में
प्रकट होकर
बवंडर सा मचा देती हैं
शांत, स्थिर वातावरण में
चाहने या ना चाहने के साथ साथ
चाहने की तीव्रता के भी
तर्क होते हैं
हमारे अपने
पर कभी कभी
वक्त-बेवक्त
कोई जरूरत
बढ़ा कर कद अपना
लहराती है ऐसे
कि उसे हटा कर
कुछ और देख पाना
असंभव सा हो जाता है
ऐसे में
तुम्हारी और देख कर
हर कामना से तत्काल मुक्त होने का प्रयास
क्या ठीक है परमपिता?
शायद इस तरह
संभव हो जाए
ये याद करना कि
हर कामना से
बड़ा हूँ 'मैं'
अशोक व्यास
शिकागो, अमेरिका
रविवार,३ अक्टूबर २०१०
2 comments:
कामनायें इस प्रकार छा जाती हैं कि हम अपनी पहचान भूल जाते हैं।
bhagwaan kar aapki kaamna poori ho :)
http://liberalflorence.blogspot.com/
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