Tuesday, October 5, 2010

ये सब जो सहज है





ये सब जो सहज है
ये साँसों का आना-जाना
ये हवा का अनुकूल स्पर्श
ये सूरज की गुनगुनाती किरण
ये स्थिर, सुख के चार पल सजाती छत
ये चार दीवारें 
जिनमें चार लोग मिल कर
संबंधो के राग-रंग का अलंकरण करते हैं 
ये सब जो सहज है
एक साफ़ सुथरी मेज
एक साफ़ सुथरा बिस्तर
डाईनिंग टेबल पर
साथ बैठ कर गरमा गरम भोजन का सेवन

ये सब सहज से संवाद
हल्की-फुल्की बातों पर हँसना
या अपने आप में मगन मुस्कुराना
और 
एक साथ आपसी समझ की नई सीढियां चढ़ना
 
छूट जाती हैं जब ये सहज प्रतीतियाँ 
तब समझ में आता है
ये सब जो सहज है
सामान्य नहीं 
बहुत विशेष है
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
५ अक्टूबर २०१० 
 
 




3 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

छूट जाती हैं जब ये सहज प्रतीतियाँ
तब समझ में आता है
ये सब जो सहज है
सामान्य नहीं
बहुत विशेष है

वाकई बहुत अच्छी रचना...अच्छा लगा पढ़कर

http://veenakesur.blogspot.com/

प्रवीण पाण्डेय said...

मेरा भी मानना है कि सहजता बहुत कठिन है।

निर्मला कपिला said...

छूट जाती हैं जब ये सहज प्रतीतियाँ
तब समझ में आता है
ये सब जो सहज है
सामान्य नहीं
बहुत विशेष है
व्यास जी बहुत गहरी सेंवेदनाये हैं इस रचना मे जिसको आपने सहज शब्दों मे ब्याँ किया है। बहुत अच्छी लगी रचना। शुभकामनायें।

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