बस इतना ही होना था
धूप उतरने के बाद
धीरे धीरे
फिर एक बार
फैलती छाया का सिमटना
सिमट कर
लुप्त हो जाना
और
एक क्षण अचानक
दिन के खो जाने
के बाद
काली चादर का फैलना
और
उस अँधेरे में
आश्वस्ति और विश्रांति का उपहार लेकर
मेरे ह्रदय में
तुमने जाग्रत रखी
वह भोर
जिसको जगाता है
शाश्वत सूरज
फिर एक बार
तुम्हारे नाम
अपना प्रेम पत्र लिखते हुए
यह जो
आभार के साथ
छलक आया है
पवन जल आँखों से
इसी से धोकर
तुम्हारे चरण
धन्य हुआ
तृप्ति का एक नया गीत
गुनगुना रहा तन्मयता से
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ सितम्बर २०१०
2 comments:
बहुत सुन्दर| सुन्दर कविता|
ब्रह्माण्ड
मन लिख देना तृप्ति का गीत ही हुआ।
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