Saturday, June 25, 2016
बंद लिफ़ाफ़े की तरह
बंद लिफ़ाफ़े की तरह
१
लिफाफा यह
खाली है भीतर से
पर चिपका हुआ है
खुल कर नष्ट हो जायेगा
कई बार
ये मान कर की
मिलना तो नहीं कुछ
हम खोलते ही नहीं
चिपका हुआ लिफाफा
समय का
इस तरह
धरा रह जाता
अज्ञात परिचय
जीवन का
बंद लिफ़ाफ़े की तरह
बीत जाता
बहुमूल्य जीवन
२
तुम ही हो न
स्वयं को देखने में
अपने आप मदद
नहीं कर पाते
शब्द
इनके द्वारा
उद्घाटित आलोक
तुम्हारा और
इनमें संचरित शक्ति भी
तुम ही हो न
तुम्हारी ही पहचान
शब्दों को उजला कर
बनाती पथ
दरसाती है गंतव्य, गति जो
यह सब हो तुम ही
पर न कहूंगा तुमसे
खेलूंगा
खेलूंगा
वैसे
जैसे भी
चाहते हो तुम
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जून २०१६
Wednesday, June 22, 2016
मैं ही मैं हूँ सर्वत्र
१
गली के मोड़ से कविता मुस्कुराई
तुमने कोई किताब नहीं छपवाई
उलाहना देते देते वो खिलखिलाई
मैंने भी देदी अपनी मुस्कान खिसियाई
२
तुम छुपा कर रखना चाहते हो मेरे साथ अपना नाता
क्यों इस सम्बन्ध का ढिढोरा पीटना तुम्हें नहीं सुहाता
कविता आज नहीं दिखा रही थी गहराई
जैसे उसके साथ कोई शोखी सी लहराई
अब उसने दिखलाया लुभावना अंदाज़
कहने लगी, किताब छपवा लो मेरे सरताज
३
ये क्या रूप? तुम मेरे प्रेयसी हो या मेरी मैय्या हो
तुम लहर हो नदी की या नौका की खिवैया हो
मेरे लिए तुम अप्सरा नहीं हो शब्द तन वाली
मेरे लिए तुम मेरे गिरिराज धारण की गैय्या हो
४
कविता फिर खिलखिलाई, जोर जोर से खिलखिलाई
इतनी की क्षितिज तक खिलखिलाहट सी छाई
क्यूँ तुम मुझे रूप और सम्बन्ध की साँचे में ढालते हो
क्यों किसी भी सम्भावना को मुझसे बाहर निकालते हो
५
मैं असीम संभावना वाला विस्तार हूँ
सबको अपनाने वाला शुद्ध प्यार हूँ
परे हूँ हर बंधन, हर परिधि के
मैं आकार होकर भी निराकार हूँ
६
क्या तुम ईश्वर हो, मैं होने लगा प्रस्तुत पूजन के लिए
इस विस्तृत रसमयता प्रदात्री के अभिनन्दन के लिए
आँख मुंद गयी, एकत्व के सुर देने लगे सुनाई
मेरे रोम रोम से मुस्कान सी जगमगाई
७
अब तुम यहाँ ही इस तरह बैठ न जाना भाई
फिर किताब छापने की सुध कौन लगा भाई
मैं ही मैं हूँ सर्वत्र, ये तो न भूलो
पर अनुभवों का झूला तो झूलो
८
कविता रसमयता का नित्य नूतन ग्राम
यहाँ स्फूर्ति और अनिर्वचनीय विश्राम
मैंने फिर से स्वयं को स्मरण करवाया
शब्द के निःशब्द रूप को सहलाया
९
कविता अब दे नहीं रही थी दिखाई
प्रयत्न करके भी बात हाथ मं आई
दिखते-२ छुपने की कला तुम्हें किसने सिखाई
मैंने पूछा, तो वो मुस्कुराई, फिर खिलखिलाई
बोली
देखने वाली आँख जब पुनः जगाओगे
मुझे अपने आस - पास देख पाओगे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ जून २०१६
Thursday, June 9, 2016
छोटा सा पुल
कहानी
१
उसने हनुमान जी की तरफ देखा
उनके बाएं हाथ में संजीवनी बूटी के लिए सुमेरु पर्वत था
उनकी दाईं भुजा में गदा थी
और उसके सम्मुख जो तस्वीर थी उसमें वे अपना बायां पाँव आगे किये हुए थे
२
उसने कहा,
प्रभु आपने ऐसा क्यूँ किया
हनुमानजी के चरणों ने कहा
प्रभु जो करते हैं तुम्हारे कल्याण के लिए करते हैं
३
उसने फिर पूछा
पर इस बेचैनी का क्या करूँ ?
संकेत मिला
इसे लेकर सुमिरन को तीव्र करो
४
वह पलटने को हुआ
उसने हनुमानजी के मुख की ओर देखा
ये कहने के लिए की सुमिरन मेरे लिए सहज नहीं है
क्योंकि मन असन्तुलित है
५
हनुमानजी, मेरे मन को तुरंत शांति प्रदान करें
इस बार उसने छोटे बच्चे की तरह कहा
जैसे तुरंत शांति प्रदान न करने पर वो हनुमानजी से रूठ जाएगा
हनुमानजी की मुख मुद्रा पर वैसी ही करूणा थी
जैसी उसने बचपन में देखी थी
ऐसा लगा
जैसे वे उच्चारित कर रहे हों
राम
राम
राम
राम
और इस राम नाम की गूँज के स्पंदन से एक आलोक सा प्रसरित हो रहा था
जो उसके आस पास के वातावरण और उसके मन तक प्रविष्ट हो रहा था
६
उसने भी हनुमान जी के साथ
मन ही मन
राम राम राम राम
राम राम राम राम
इस नाम के प्रवाह पर अपने मन को टिका दिया
७
राम राम राम राम
राम राम राम राम
राम राम राम राम
राम राम राम राम
८
हनुमान जी ने कहा
इस नाम से बड़े बड़े समुन्द्र पर पुल बन गया था
स्मरण है न ?
जी
हनुमान जी मुस्कुराये
तुम्हें तो छोटा सा पुल बनाना है
समृद्धि की ओर जाना है
शांति की ओर जाना है
सृजनात्मक अभिव्यक्ति की ओर जाना है
अपने आत्म स्वरुप में लीन हो जाने में सहायक
मानासिक अवस्था तक जाना है
जब मैं संजीवनी जड़ी बूटी के लिए पूरा पर्वत उठा
ला सकता हूँ
तो तुम्हारे लिए त्रिविध ताप हरण करने वाली
जड़ी बूटी भी ला सकता हूँ न
लाया हूँ
लाता रहा हूँ
उनकी करूणा में भीगते हुए उसने मन ही मन
प्रार्थना की
यह अमोघ कवच सा स्मरण कभी न छूटे
९
हनुमान जी !
मेरे मन में किसी के प्रति द्वेष न हो
पर कोई मुझे क्षुद्र भी न समझे
मैं आपका हूँ
इस भाव के साथ जो गरिमा और सम्मान जुड़ा है
उसे कभी कोई मलिन न कर पाये
हनुमान जी ने कहा
सम्मान और समृद्धि सब कुछ तुम्हें प्राप्त होंगे
समर्पित भाव से स्वीकार करो
आगे बढ़ो
सुमिरन रस का लेप जो है न
यह तुम्हारा और तुम्हारे मन का सुरक्षा कवच है
श्री हनुमानजी के रोम रोम से आश्वस्ति और आशीष झर रहे थे
उसने प्रार्थना की
मैं अपने प्रति सच्चा रहूँ
मैं अपने गुरु के प्रति सच्चा रहूँ
मैं प्रभु के प्रति सच्चा रहूँ
सहसा हनुमान जी ने उसे अपने काँधे पर बिठाया
और चिंता नदी के पार ले आये
किनारे पर उसे छोड़ते हुए बोले
जाओ अब गतिशील हो जाओ
प्रत्येक कार्य को अपने इष्ट श्री कृष्ण को अर्पित करते हुए करो
मंगल भवन अमंगल हारी
श्री हनुमान जी के स्मरण से आंतरिक दृढ़ता की
स्थिति पुनः प्राप्त हुई
कृतज्ञता से परिपूर्ण
उसने रोम रोम से हुंकार लगाई
जय जय जय हनुमान गुसांई
कृपा करो गुरुदेव की नाईं
फिर वहीं बैठ गया
सर्वत्र हनुमान लल्ला की उपस्थिति का भाव चहुँ ओर
अनिर्वचनीय आभा का प्रकटन
उसके मुख पर मुस्कान थी
ऐसी मुस्कान जिसका उद्गम हनुमान जी की कृपा ही थी
अनायास वह शुद्ध स्फूर्तियुक्त और परम मंगल प्रसन्नता के
भाव से भर गया था
स्मरण हुआ
हनुमान जी ने कहा था 'गतिशील हो जाओ'
वह भगवत कृपा के उपहार से नूतन दिवस को अलंकृत करने का
भाव लिए उनकी उपस्थिति को साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर उठ खड़ा हुआ
चलते चलते
उसके शरारती मन ने कहा
'हनुमान जी सचमुच आये नहीं थे
तुम मन ही मन नाटक कर रहे थे '
उसे आश्चर्य हुआ
इस बार मन की गहनता ने जवाब दिया
'हनुमान जी सचमुच आते नहीं हैं
क्योंकि वो सचमुच जाते भी नहीं हैं
वे तो हैं
वे सर्वदा हैं
सर्वत्र हैं
वे ही तो हैं'
शरारती मन को लगा
फिलहाल उसका मुखरित होने का समय नहीं
सारा मन सम्पूर्णता से हनुमान लल्ला के भाव में तन्मय
राम राम राम राम
इस नाम का स्वयं श्री हनुमान के मुख से श्रवण हुआ था
वह हंसा
खिलखिलाया
उछलते हुए चल निकला
जय श्री राम
जय श्री कृष्ण
ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव
उसकी साँसों ने कहा
'सारा विश्व एक परिवार है, उसके मन में सबके कल्याण की भावना उदित हुई
उसके रोम रोम से सबके लिए प्रेम प्रसरित हो रहा था'
चलते चलते
उसने फिर अनुभव किया
जीवित होना कितनी बड़ी कृपा है
उसे स्मरण हुआ
मन कितना विलक्षण है
इसके द्वारा स्वयं के साथ साथ संवित से भी संवाद संभव है
शुद्ध मन में एक नाद ब्रह्म की गूँज है
वह अपने ही भीतर सम्माहित हुआ सारे दिन को शांति और सेवा के ताज़ा उपहार देने के लिए
चल पड़ा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जून ९, २०१६
गुरूवार
Wednesday, June 8, 2016
अपरिवर्तनीय सत्य
हम सबके पास
अलग अलग आकार
अलग अलग रंग का सत्य है
हम चलते हैं
अपना अपना सत्य लिए
तब भी जब
समन्वय को चीर कर
खंज़र बन सत्य
लहूलुहान करता है
हमें
हम
अपने बहते लहू का बदला लेने
बाध्य होते
चोट पहुंचाने
दूसरों को
अपरिवर्तनीय सत्य का परिचय
छिटका कर
धुएं में घर बना कर
डरे डरे
अब कैसे
समग्र सत्य के समीप जाएँ
अपनी क्षुद्रता को कहाँ छुपाएँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ जून २०१६
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