Saturday, September 20, 2014

अपने होने की परम्परा



परंपरा में 
एक गति है 
उत्साह है 
सम्बल है 
प्रेरणा है 
पुकार है 

देखते हुए 
अपने होने की परम्परा 
समय सापेक्ष सन्दर्भों से छूट 
होता हूँ अग्रसर 
अनंत की ओर 
सहज ही 

क्रीड़ा सी हो जाती 
सारी चुनौतियाँ 
एक शंख बजता है 
एक पवित्र एकांत सा 
सुलभ हो जाता भीतर 

अपने अटूट स्वरुप में 
अनछुई सी आस्था 
उमड़ आती है 
सहसा 

कहते हुए भी 
बना रहता है मौन 

और 
बोध मौन के इस साक्षी का 
सुन्दर कर देता है 
मेरा हर क्षण 

मैं 
एक बिंदु से दुसरे बिंदु तक 
दृश्यमान जीवन के पार तक 
अपने होने की 
गहन आश्वस्ति लिए 

इस असीम सेतु की गोपनीयता का 
सम्मान करता हूँ 

मेरे होने की एक परम्परा है 
यह पहचान देने वाली श्रद्धा 
अपने से पूर्व और पश्चात देख कर 
बढ़ती जाती है 
इस तरह देखने वाली दृष्टि 
जिन चरणो से आती है 
उन चरणो में श्रद्धा ही 
मेरा निर्माण करवाती है 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२० सितम्बर २०१४ 

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