Tuesday, May 13, 2014

सर तेरे दर ही झुकाऊँ


१ 
मेरा सर झुकने लगा है 
पर तुम्हें कैसे बताऊँ 
तुमने जो देखा है मंज़र 
है गलत, कैसे जताऊँ 
ख़्वाब की कश्ती में अब तक 
एक पुरानी चाह कोमल 
सूर्य की नन्ही किरन से 
तुम हो उज्जवल और निश्छल 
२ 
मेरा सर झुकने लगा है 
अब इसे कैसे उठाऊं 
बात जो जानी है तुमने 
उससे क्या तुमको बचाऊँ 

मैं सफ़र तय कर चुका हूँ 
रास्ते कैसे दिखाऊँ 
आँख जो अब है तुम्हारी 
उससे क्या आँखें मिलाऊँ 

३ 
मेरा सर झुंकने न पाये 
इस ग़रज़ से क्या सिखाऊँ 
हो सके तो जो न जाना 
अब वो सब भी जान पाऊँ

जान और अनजान में
बस एक जरा सा फासला है
इस जरा से फ़ासले में
जी रहा हूँ, मर ना जाऊँ

मेरा सर झुकने न पाये
बात ये भी क्यूँ उठाऊँ
अब कहीं क्यूँ कर झुकेगा
सर तेरे दर ही झुकाऊँ
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका

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