Thursday, May 1, 2014

ये कैसा जादू है


रास्ता इस बार 
नहीं जा रहा 
तुम्हारी गली तक 

मोड़ खो गया कहीं 
या किसी ने चुरा ही लिया रास्ता 

भटक भटक कर 
थक हार कर 
सुस्ताने बैठा हूँ 
यहाँ 
जिस पेड़ की छाँव में 

सहसा 
दिखाई दी 
एक खिड़की 
जिसमें से झाँक गयी तुम्हारी छवि 

ये कैसा जादू है 
तलाश छोड़ने पर 
हार मान लेने पर 
मिल जाता है 
पता तुम्हारा 

या शायद 
खुल जाती हैं 
आँखें 
अपने प्रयास छोड़ने पर 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१ मई २०१४ 

3 comments:

Rewa Tibrewal said...

nirasha ko asha mey badlana sikhati rachna..bahut khoob

Onkar said...

सुंदर रचना

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर, क्या कहने।

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