यह जो भाग दौड़ है
हर दिन
एक लक्ष्य के पीछे
अपने आप को
फिर फिर टटोलते हुए
फिर फिर संवारते हुए
रात दिन
चिंतन नगरी में
एक नया उत्सव सजाते हुए
यह सब तैय्यारी
जिसके लिए है
उसे रिझाना क्या हो पाता है
और उसके लिए इस तरह नए नए रूपों में
ढलते हुए
क्या मैं मूल रूप में शेष रह जाता है
२
तनाव रहित
एकाकी क्षण में
तटस्थ हुआ
अपनी ही दौड़ के
चल्यायमान स्मृति चित्र देखता
यह
मैं
जो मुस्कुराता है
इस मैं का
उस भागते मैं से जो नाता है
उस नाते को जो बनाता है
हो न हो, वही मुक्तिदाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२६ फरवरी २०१४
1 comment:
चलचित्र से परे है अपनी पहचान।
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