उसके पास जो कुछ भी था
कीमती, महँगा और बहुमूल्य
सब कुछ
सारहीन हो चला था
एकाएक
नए परिवेश में
अपने लिए
नया पहचान पत्र बनवाने
अपने भीतर उतरने का रास्ता
देख ही न पा रहा था वह
और
इस उहा पोह में
घना एकाकीपन
उसे घेर कर
बढ़ा रहा था
एक भय सा
२
ऐसे में
उसे मालूम था
कभी कभी
न जाने कहाँ से
उभर सकती है
एक आवाज़
जिसका स्पर्श
स्नेहिल ऊष्मा से
भर सकता है
सारे परिवेश को
और
जहाँ है वहीं
खिल सकते हैं
नई पहचान के पुष्प
३
वह अब भी
सारी अनिश्चितता
और संशयों के बीच
सुन रहा था
श्रद्धा नदी के प्रवाह का
मद्धम स्वर
अपने भीतर
तो क्या
वह आवाज़
जो रूपांतरित कर देती है
सब कुछ
हर बार
आती रही है
मेरे ही भीतर से ?
सोच कर वह मुस्कुराया
और सूरज उग आया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जनवरी २०१३
4 comments:
एक प्रयास स्वयं से करना है और जीवन पुष्प खिलाना है ....
नववर्ष की शुभकामनायें .
ऐसे में उसे मालूम था.....
.... श्रद्धा नदी के प्रवाह ....
सुन्दर व्याख्या की है आपने सुरज उग आने की.
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ अशोक भाई.
सोचने पर विवश करने वाला....
अन्ततः श्रद्धा ही जीतती है।
Post a Comment