और फिर
अपने भीतर
एक नए से स्थान में
देखता रहा वह
बदलते हुए रंग
धूप के नए नए आकार
तैरते रहे
फूलों के बगीचे पर
और फिर
आँगन में बारिश की छम छम
धीरे धीरे
भयावह थाप सुनाते
जगाने लगी
उदास तराने
तन्मय अपने आप में
समेट कर सारा कोलाहल
उसने कालातीत का दुशाला ओढ़ कर
छोड़ दिया
सीमाओं का जंगल
जिस क्षण
उस क्षण के मौन में
झांकी झलक अज्ञात अनाम की
नतमस्तक अनंत को
छोड़ते हुए
अपनी सीमित पहचान
अनायास ही
हो गया
एकमेक वह विस्तार के साथ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ दिसम्बर २०१३
1 comment:
आकाश को आस समर्पित..
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