Monday, December 9, 2013

बदलते हुए रंग


और फिर 
अपने भीतर 
एक नए से स्थान में 
देखता रहा वह 
बदलते हुए रंग 
धूप के नए नए आकार 
तैरते रहे 
फूलों के बगीचे पर

और फिर 
आँगन में बारिश की छम छम 
धीरे धीरे 
भयावह थाप सुनाते 
जगाने लगी 
उदास तराने
 
तन्मय अपने आप में 
समेट कर सारा कोलाहल 
उसने कालातीत का दुशाला ओढ़ कर 
छोड़ दिया 
सीमाओं का जंगल 
जिस क्षण 
उस क्षण के मौन में 
झांकी झलक अज्ञात अनाम की 
 

नतमस्तक अनंत को
छोड़ते हुए 
अपनी सीमित पहचान 
अनायास ही 
हो गया 
एकमेक वह विस्तार के साथ


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
९ दिसम्बर २०१३

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

आकाश को आस समर्पित..

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...