Wednesday, August 7, 2013

बेखबर होने का नाटक


शायद आज सच कह रहा हूँ 
उस दिन 
मैंने झूठ कहा था 
की खिड़की से मुझे देखती तुम्हारी नज़रों को 
मैंने कभी नहीं देखा 

सच तो ये है की 
मेरे बाल 
मेरी चाल 
मेरे मन का हाल 

सब कुछ देखा किये तुम्हें 
हवाओं में घुल मिल कर 

सच तो ये है की 
तुम्हारे देखने से पहले ही 
ताकती रही थीं 
मेरी नजरें 
खाली खिड़की को 
और 
तुम्हारे आने के बाद 
लगातार 
बना रहा 
बेखबर होने का नाटक
और
इस नाटक का समापन
अपने ही भीतर
जब हुआ
एक दिन
तब न सोचा था
की
तुम्हारे जाने बिना
अपने होने की खबर
तुम्हारे होने से
लेते रहने का सिलसिला
तोड़ कर
अपने आपको फिर से पाने के लिए
बढाए गए दो कदम
इतने मुश्किल हो सकते हैं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ अगस्त २०१३

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समय और स्थान से परे..हर समय, हर जगह।

Anupama Tripathi said...

सहज होना कितना कठिन है .....!!
सुंदर प्रस्तुति ।

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